रविवार, 7 नवंबर 2010

स्वार्थ का अर्थ


स्वार्थ शब्द का अर्थ समझते हो? शब्द बड़ा प्यारा है, लेकिन गलत हाथों में पड़ गया है। स्वार्थ का अर्थ होता है--आत्मार्थ। अपना सुख, स्व का अर्थ। तो मैं तो स्वार्थ शब्द में कोई बुराई नहीं देखता। मैं तो बिलकुल पक्ष में हूं। मैं तो कहता हूं, धर्म का अर्थ ही स्वार्थ है। क्योंकि धर्म का अर्थ स्वभाव है।

और एक बात खयाल रखना कि जिसने स्वार्थ साध लिया, उससे परार्थ सधता है। जिससे स्वार्थ ही न सधा, उससे परार्थ कैसे सधेगा! जो अपना न हुआ, वह किसी और का कैसे होगा! जो अपने को सुख न दे सका, वह किसको सुख दे सकेगा! इसके पहले कि तुम दूसरों को प्रेम करो, मैं तुम्हें कहता हूं, अपने को प्रेम करो। इसके पहले कि तुम दूसरों के जीवन में सुख की कोई हवा ला सको, कम से कम अपने जीवन में तो हवा ले आओ। इसके पहले कि दूसरे के अंधेरे जीवन में प्रकाश की किरण उतार सको, कम से कम अपने अंधेरे में तो प्रकाश को निमंत्रित करो। इसको स्वार्थ कहते हो! चलो स्वार्थ ही सही, शब्द से क्या फर्क पड़ता है! लेकिन यह स्वार्थ बिलकुल जरूरी है। यह दुनिया ज्यादा सुखी हो जाए, अगर लोग ठीक अर्थों में स्वार्थी हो जाएं।

और जिस आदमी ने अपना सुख नहीं जाना, वह जब दूसरे को सुख देने की कोशिश में लग जाता है तो बड़े खतरे होते हैं। उसे पहले तो पता नहीं कि सुख क्या है? वह जबर्दस्ती दूसरे पर सुख थोपने लगता है, जिस सुख का उसे भी अनुभव नहीं हुआ। तो करेगा क्या? वही करेगा जो उसके जीवन में हुआ है।

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समथिंग मोर - जोड़ से कही ज्यादा


इसे थोड़ा समझना पड़ेगा। और इसे हम न समझ पाएं, तो ईशावास्य के पहले और अंतिम सूत्र को भी नहीं समझ पाएंगे। एक चित्रकार एक चित्र बनाता है। अगर हम हिसाब लगाने बैठें, तो रंगों की कितनी कीमत होती है? कुछ ज्यादा नहीं। कैनवस की कितनी कीमत होती है? कुछ ज्यादा नहीं। लेकिन कोई भी श्रेष्ठ कृति, कोई भी श्रेष्ठ चित्र, रंग और कैनवस का जोड़ नहीं है, जोड़ से कुछ ज्यादा है-समथिंग मोर।

एक कवि एक गीत लिखता है। उसके गीत में जो भी शब्द होते हैं, वे सभी शब्द सामान्य होते हैं। उन शब्दों को हम रोज बोलते हैं। शायद ही उस कविता में एकाध ऐसा शब्द मिल जाए जो हम

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दो और दो तीन या दो और दो पांच भी हो जाते हैं


पी.डी.आस्पेंस्की ने एक किताब लिखी है। किताब का नाम है, टर्शियम आर्गानम। किताब के शुरू में उसने एक छोटा सा वक्तव्य दिया है। पी.डी.आस्पेंस्की रूस का एक बहुत बड़ा गणितज्ञ था। बाद में, पश्चिम के एक बहुत अदभुत फकीर गुरजिएफ के साथ वह एक रहस्यवादी संत हो गया। लेकिन उसकी समझ गणित की है-गहरे गणित की। उसने अपनी इस अदभुत किताब के पहले ही एक वक्तव्य दिया है, जिसमें उसने कहा है कि दुनिया में केवल तीन अदभुत किताबें हैं; एक किताब है अरिस्टोटल की-पश्चिम में जो तर्क-शास्त्र का पिता है, उसकी-उस किताब का नाम है: आर्गानम। आर्गानम का अर्थ होता है, ज्ञान का सिद्धांत। फिर आस्पेंस्की ने कहा है कि दूसरी महत्वपूर्ण किताब है रोजर बैकन की, उस

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सारी क्रांतियां हुई, शिक्षा में क्रांति नहीं हुई


दुनिया में अब तक धार्मिक क्रांतियां हुई हैं। एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोग हो गए। कभी समझाने-बुझाने से हुए, कभी तलवार छाती पर रखने से हो गए लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। हिंदू मुसलमान हो जाए तो वैसे का वैसा आदमी रहता है, मुसलमान ईसाई हो जाए तो वैसा का वैसा आदमी रहता है, कोई फर्क नहीं पड़ा धार्मिक क्रांतियों से। राजनैतिक क्रांतियां हुई हैं। एक सत्ताधारी बदल गया, दूसरा बैठ गया। कोई जरा दूर की जमीन पर रहता है, वह बदल गया, तो जो पास की जमीन पर रहता है, वह बैठ गया। किसी की चमड़ी गोरी थी वह हट गया तो किसी की चमड़ी काली थी वह बैठ गया, लेकिन भीतर का सत्ताधारी वही का वही है। आर्थिक क्रांतियां हो गई हैं दुनिया में। मजदूर बैठ गए, पूंजीपति हट गए। लेकिन बैठने से मजदूर पूंजीपति हो गया। पूंजीवाद चला गया तो उसकी जगह मैनेजर्स आ गए। वे उतने ही दुष्ट, उतने ही खतरनाक! कोई फर्क नहीं पड़ा। वर्ग बने रहे। पहले वर्ग था, जिसके पास धन है-वह, और जिसके पास धन नहीं है-वह। अब वर्ग हो गया-जिसमें धन वितरित किया जाता है-वह और जो धन वितरित करता है-वह। जिसके पास ताकत है, स्टेट में जो है वह

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सभी प्रेम चाहते हैँ फिर भी प्रेम का अकाल क्योँ


मैं आपको एक सूत्र की बात कहूं: जिस मनुष्य के पास प्रेम है उसकी प्रेम की मांग मिट जाती है। और यह भी मैं आपको कहूं: जिसकी प्रेम की मांग मिट जाती है वही केवल प्रेम को दे सकता है। जो खुद मांग रहा है वह दे नहीं सकता है।

इस जगत में केवल वे लोग प्रेम दे सकते हैं जिन्हें आपके प्रेम की कोई अपेक्षा नहीं है—केवल वे ही लोग! महावीर और बुद्ध इस जगत को प्रेम देते हैं। जिनको हम समझ ही नहीं पाते। हम सोचते हैं, वे तो प्रेम से मुक्त हो गए हैं। वे ही केवल प्रेम दे रहे हैं। आप प्रेम से बिलकुल मुक्त हैं। क्योंकि उनकी मांग बिलकुल नहीं है। आपसे कुछ भी नहीं मांग रहे हैं, सिर्फ दे रहे हैं।

प्रेम का अर्थ है: जहां मांग नहीं है और केवल देना है। और जहां मांग है वहां प्रेम नहीं है, वहां सौदा है। जहां मांग है वहां प्रेम बिलकुल नहीं है, वहां लेन-देन है। और अगर लेन-देन जरा ही गलत हो जाए तो जिसे हम प्रेम समझते थे वह घृणा में परिणत हो जाएगा। लेन-देन गड़बड़ हो जाए तो मामला टूट जाएगा। ये सारी दुनिया में जो प्रेमी टूट जाते हैं, उसमें और क्या बात है? उसमें कुल इतनी बात है कि लेन-देन गड़बड़ हो जाता है। मतलब हमने जितना चाहा था मिले, उतना नहीं मिला; या जितना हमने सोचा था दिया, उसका ठीक प्रतिफल नहीं मिला। सब लेन-देन टूट जाते

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जिस बात का लेना-देना दूसरों से है, उसके बारे में मत सोचें


दूसरे की किसी बात को लेकर सोचें मत। "और तुम यही सोचते रहते हो। निन्यानबे प्रतिशत बातें जो तुम सोचते हो उनका लेना-देना दूसरों से रहता है। छोड़ दें, उन्हें इसी वक्त छोड़ दें! "तुम्हारा जीवन बहुत छोटा है, और जीवन हाथों से फिसला जा रहा है। हर घड़ी तुम कम हो रहे हो, हर दिन तुम कम हो रहे हो, और हर दिन तुम कम जीवित होते जाते हो! हर जन्म-दिन तुम्हारा मरण-दिन है; तुम्हारे हाथों से एक वर्ष और फिसल गया। कुछ और प्रज्ञावान बनो।

"जिस बात का लेना-देना दूसरों से है, उसके बारे में मत सोचें। पहले अपनी मुख्य दुर्बलता के विपरीत अभ्यास करें।

"गुरजिएफ अपने अनुयायियों से कहा करता था-- 'पहली बात, सबसे पहली बात, ढूंढें कि तुम्हारी मूल दुर्बलता क्या है

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बस बांटो



हर व्यक्ति प्रेम चाहता है और यही गलत शुरुआत है

यह शारीरिक नहीं है; इसका नाता कहीं विश्रांति से है, पिघलने से है, पूरा मिट जाने से है। उन पलों में यह मिट जाता है अत: निश्चित ही यह शारीरिक नहीं। तुम्हें अधिक प्रेम देना सीखना होगा। यह केवल तुम्हारी समस्या नहीं है; थोड़ी या ज़्यादा, यह समस्या सभी की है।

एक बच्चा, एक छोटा बच्चा प्रेम नहीं कर सकता, कुछ कह नहीं सकता, कुछ कर नहीं सकता, कुछ दे नहीं सकता; बस ले सकता है। छोटे बच्चे का प्रेम का अनुभव केवल लेने का है: मां से, पिता से, बहनों से, भाइयों से, पड़ोसियों से, अजनबियों से-- बस लेने का अनुभव। तो पहला अनुभव जो उसके अचेतन तक पैठ जाता है वह प्रेम लेने का है। परंतु समस्या यह है कि हर व्यक्ति बच्चा रहा है और हर व्यक्ति के भीतर प्रेम पाने की आकांक्षा है; कोई भी किसी अलग ढंग से पैदा नहीं हुआ है। तो सभी मांग रहे हैं,"हमें प्रेम दो" लेकिन देने वाला कोई भी नहीं क्योंकि वे भी उसी तरह पैदा हुए हैं। हमें सजग व सचेत रहना चाहिए कि हम जन्म की यह अवस्था हमारे पूरे जीवन पर आच्छादित न हो जाए।


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बुधवार, 3 नवंबर 2010

अहंकार परमात्मा का प्रतिबिंब है


सभी धर्म तुमसे अपने अहंकार को छोड़ने के बाबत कहते रहे हैं, लेकिन यह एक बड़ी विचित्र बात है: वे चाहते हैं, तुम अपना अहंकार छोड़ दो, और अहंकार सिर्फ परमात्मा की छाया की है। परमात्मा पूरे विश्व का अहंकार है, अहंकार तुम्हारा व्यक्तित्व है। धर्मों के अनुसार जैसे परमात्मा इस अस्तित्व का केंद्र है, इसी भांति अहंकार, तुम्हारे व्यक्तित्व और तुम्हारे मन का भी केंद्र है। वे सभी अहंकार को छोड़ने की बात कर रहे हैं, लेकिन यह तब तक नहीं छोड़ा जा सकता है, जब तक कि परमात्मा को ही न छोड़ दिया जाए। तुम एक छाया या प्रतिबिंब को तब तक नहीं छोड़ सकते जब तक कि उसके प्रत्यक्ष स्रोत को ही नष्ट न कर दिया जाए।

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सत्य है बिजली की कौंध


महावीर ने जो कहा है, उसमें बदलने की कोई जगह नहीं है। कृष्ण ने जो कहा है, उसमें बदलने की कोई जगह नहीं है। बुद्ध ने जो कहा है, उसमें बदलने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए कभी-कभी पश्चिम के लोग चिंतित और विचार में पड़ जाते हैं कि महावीर को हुए पच्चीस सौ साल हुए, क्या उनकी बात अभी भी सही है? ठीक है उनका पूछना। क्योंकि पच्चीस सौ साल में अगर दीए से हम सत्य को खोजते हों, तो पच्चीस हजार बार बदलाहट हो जानी चाहिए। रोज नए तथ्य आविष्कृत होंगे और पुराने तथ्य को हमें रूपांतरित करना पड़ेगा।

लेकिन महावीर, बुद्ध या कृष्ण के सत्य रिविलेशन हैं। दीया लेकर खोजे गए नहीं-निर्विचार की कौंध, निर्विचार की बिजली की चमक में देखे गए और जाने गए, उघाड़े गए सत्य हैं। जो सत्य महावीर ने जाना उसमें महावीर एक-एक कदम सत्य को नहीं जान रहे हैं, अन्यथा पूर्ण सत्य कभी भी नहीं जाना जा सकेगा। महावीर पूरे के पूरे सत्य को एक साथ जान रहे हैं।

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दो व्यक्तियोँ की तुलना न करेँ


जब तक दुनिया में हम एक आदमी को दूसरे आदमी से कम्पेयर करेंगे, तुलना करेंगे तब तक हम एक गलत रास्ते पर चले जाएंगे। वह गलत रास्ता यह होगा कि हम हर आदमी में दूसरे आदमी जैसा बनने की इच्छा पैदा करते हैं; जब कि कोई आदमी किसी दूसरे जैसा न बना है और न बन सकता है। राम को मरे कितने दिन हो गए, या क्राइस्ट को मरे कितने दिन हो गए? दूसरा क्राइस्ट क्यों नहीं बन पाता और हजारों-हजारों क्रिश्चिएन कोशिश में तो चौबीस घंटे लगे हैं कि क्राइस्ट बन जाएं। और हजारों हिंदु राम बनने की कोशिश में हैं, हजारों जैन, बुद्ध, महावीर बनने की कोशिश में लगे हैं, बनते क्यों नहीं एकाध? एकाध दूसरा क्राइस्ट और दूसरा महावीर पैदा क्यों नहीं होता? क्या इससे आंख नहीं खुल सकती आपकी?

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पिघलना, मिट जाना और विलुप्त हो जाना ही अस्तित्वहीनता है


प्यारे ओशो, जब तन्का द्वारा बुद्ध की काष्ठ-मूर्ति को जलाए जाने की घटना के बारे में तेन्जिक से पूछा गया, तो उसने उत्तर दिया: "जब शीत अधिक होती है तो हम चूल्हे की आग के चारों ओर इकट्ठे हो जाते हैं'।' "क्या वह गलत था अथवा नहीं? ' भिक्षु ने जोर देकर पूछा।
तेन्जीकू ने कहा: "जब गर्मी लगती है तो हम घाटी के बांसवन में जाकर बैठ जाते हैं।'

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पूर्ण से पूर्ण निकलता है तो पूर्ण शेष रहता है


पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
शांतिः शांतिः शांतिः।

वह पूर्ण है और यह भी पूर्ण है; क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है। तथा पूर्ण का पूर्णत्व लेकर पूर्ण ही बच रहता है।
शांति, शांति, शांति।

यह महावाक्य कई अर्थों में अनूठा है। एक तो इस अर्थ में कि ईशावास्य उपनिषद इस महावाक्य पर शुरू भी होता है और पूरा भी। जो भी कहा जाने वाला है, जो भी कहा जा सकता है, वह इस सूत्र में पूरा आ गया है। जो समझ सकते हैं, उनके लिए ईशावास्य आगे पढ़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। जो नहीं समझ सकते हैं, शेष पुस्तक उनके लिए ही कही गई है।
इसीलिए साधारणतः ॐ शांतिः शांतिः शांतिः का पाठ, जो कि पुस्तक के अंत में होता है, इस पहले वचन के ही अंत में है। जो जानते हैं, उनके हिसाब से बात पूरी हो गई है। जो नहीं जानते हैं, उनके लिए सिर्फ शुरू होती है।

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