रविवार, 7 नवंबर 2010

सभी प्रेम चाहते हैँ फिर भी प्रेम का अकाल क्योँ


मैं आपको एक सूत्र की बात कहूं: जिस मनुष्य के पास प्रेम है उसकी प्रेम की मांग मिट जाती है। और यह भी मैं आपको कहूं: जिसकी प्रेम की मांग मिट जाती है वही केवल प्रेम को दे सकता है। जो खुद मांग रहा है वह दे नहीं सकता है।

इस जगत में केवल वे लोग प्रेम दे सकते हैं जिन्हें आपके प्रेम की कोई अपेक्षा नहीं है—केवल वे ही लोग! महावीर और बुद्ध इस जगत को प्रेम देते हैं। जिनको हम समझ ही नहीं पाते। हम सोचते हैं, वे तो प्रेम से मुक्त हो गए हैं। वे ही केवल प्रेम दे रहे हैं। आप प्रेम से बिलकुल मुक्त हैं। क्योंकि उनकी मांग बिलकुल नहीं है। आपसे कुछ भी नहीं मांग रहे हैं, सिर्फ दे रहे हैं।

प्रेम का अर्थ है: जहां मांग नहीं है और केवल देना है। और जहां मांग है वहां प्रेम नहीं है, वहां सौदा है। जहां मांग है वहां प्रेम बिलकुल नहीं है, वहां लेन-देन है। और अगर लेन-देन जरा ही गलत हो जाए तो जिसे हम प्रेम समझते थे वह घृणा में परिणत हो जाएगा। लेन-देन गड़बड़ हो जाए तो मामला टूट जाएगा। ये सारी दुनिया में जो प्रेमी टूट जाते हैं, उसमें और क्या बात है? उसमें कुल इतनी बात है कि लेन-देन गड़बड़ हो जाता है। मतलब हमने जितना चाहा था मिले, उतना नहीं मिला; या जितना हमने सोचा था दिया, उसका ठीक प्रतिफल नहीं मिला। सब लेन-देन टूट जाते

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