शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

साक्षी:समस्त धर्म-अनुभव की एकमात्र वैज्ञानिक आधारशिला - भाग 1

मैं शरीर नहीं हूं, ऐसा किसको अनुभव होता है? मैं मन नहीं हूं, ऐसा किसको अनुभव होता है? ऐसा कौन इनकार करता चला जाता है कि मैं यह नहीं हूं, मैं यह नहीं हूं, मैं यह नहीं हूं?

एक तत्व है हमारे भीतर दर्शन का, दृष्टि का, द्रष्टा का, देखने का। हम देख रहे हैं; हम जांच रहे हैं। वह जो देख रहा है, वही है साक्षी; जो दिखाई पड़ रहा है, वही है जगत। जो देख रहा है, वही हूं मैं; और जो दिखाई पड़ रहा है, वही है जगत। अध्यास का अर्थ है कि जो देख रहा है, वह भूल से यह समझ लेता है कि जो दिखाई पड़ रहा है वह मैं हूं। यह अध्यास है। एक हीरा मेरे हाथ में रखा है। उसे मैं देख रहा हूं। अगर मैं यह कहने लगूं कि मैं हीरा हूं तो अभ्यास होगा। क्योंकि हीरा मेरे हाथ पर रखा है, दिखाई पड़ रहा है, आब्जेक्ट है, एक विषय है, और मैं देखना वाला हूं, अलग हूं। देखना वाला सदा ही अलग है उससे जो दिखाई पड़ता है। देखने वाला कभी भी दृश्य के साथ एक नहीं है। देखने वाला सदा ही दिखाई पड़ने वाले से भिन्न है। मैं आपको देख रहा हूं क्योंकि आपसे भिन्न हूं, आप मुझे देख रहे हैं क्योंकि मैं आपसे भिन्न हूं। जो भी दिखाई पड़ता है वह आपसे भिन्न है। उसको ही अपने से अभिन्न समझ लेना अध्यास है। जिसको आप देख रहे हैं उसके साथ इतने मोहित हो जाना कि लगने लगे यह मैं ही हूं, यही भ्रांति है। इस भ्रांति को तोड़ना है और अंततः उस शुद्ध तत्व को खोज लेना है जो सदा ही देखने वाला है और कभी दिखाई नहीं पड़ता।

आगे पढ़े ................. यहाँ क्लिक करे

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें