बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

जिसे आप ध्यान कह रहे हैं, उसमें और आटो-हिप्नोसिस में, आत्म-सम्मोहन में क्या फर्क है


वही फर्क है, जो नींद में और ध्यान में है। इस बात को भी समझ लेना उचित है। नींद है प्राकृतिक रूप से आई हुई, और आत्म-सम्मोहन भी निद्रा है प्रयत्न से लाई हुई। इतना ही फर्क है। हिप्नोसिस में-हिप्नोस का मतलब भी नींद होता है-हिप्नोसिस का मतलब ही होता है तंद्रा, उसका मतलब होता है सम्मोहन। एक तो ऐसी नींद है जो अपने आप आ जाती है, और एक ऐसी नींद है जो कल्टीवेट करनी पड़ती है, लानी पड़ती है।

अगर किसी को नींद न आती हो, तो फिर उसको लाने के लिए कुछ करना पड़ेगा। तब एक आदमी अगर लेटकर यह सोचे कि नींद आ रही है, नींद आ रही है, नींद आ रही है...मैं सो रहा हूं, मैं सो रहा हूं, मैं सो रहा हूं...तो यह भाव उसके प्राणों में घूम जाए, घूम जाए, घूम जाए, उसका मन पकड़ ले कि मैं सो रहा हूं, नींद आ रही है, तो शरीर उसी तरह का व्यवहार करना शुरू कर देगा। क्योंकि शरीर कहेगा कि नींद आ रही है तो अब शिथिल हो जाओ। नींद आ रही है तो श्वासें कहेंगी कि अब शिथिल हो जाओ। नींद आ रही है तो मन कहेगा कि अब चुप हो जाओ। नींद आ रही है, इसका वातावरण पैदा अगर कर दिया जाए भीतर, तो शरीर उसी तरह व्यवहार करने लगेगा। शरीर को इससे कोई मतलब नहीं है। शरीर तो बहुत आज्ञाकारी है।

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