रविवार, 24 अक्तूबर 2010

आकाश कभी नहीं बदलता


इसे एक दिशा से और समझने की कोशिश करें।
सागर हमारे अनुभव में-दिखाई पड़ने वाले अनुभव में, आंखों, इंद्रियों के जगत में-घटता-बढ़ता मालूम नहीं पड़ता। घटता-बढ़ता है। बहुत बड़ा है। अनंत नहीं, विराट है। नदियां गिरती रहती हैं सागर में, बाहर नहीं आतीं। आकाश से बादल पानी को भरते रहते हैं, उलीचते रहते हैं सागर को। कमी नहीं आती, अभाव नहीं हो जाता। फिर भी घटता है। विराट है-अनंत नहीं है, असीम नहीं है। विराट है सागर, इतनी नदियां गिरती हैं, कोई इंचभर फर्क मालूम नहीं पड़ता। ब्रह्मपुत्र, और गंगाएं, और ह्वांगहो, और अमेजान, कितना पानी डालती रहती हैं प्रतिपल! सागर वैसा का वैसा रहता है। हर रोज सूरज उलीचता रहता है किरणों से पानी को। आकाश में जितने बादल भर जाते हैं, वे सब सागर से आते हैं। फिर भी सागर जैसा था वैसा रहता है। फिर भी मैं कहता हूं कि सागर का अनुभव सच में ही घटने-बढ़ने का नहीं है। घटता-बढ़ता है, लेकिन इतना बड़ा है कि हमें पता नहीं चलता।

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